ओशो प्यारे...

तुने डाली हे  करुना कि ऐसी  नज़र ,
कि मेरा गीत निखारना लगा है|
भवन जीवन का बन गया था खंडर,
तेरे इशारा सा फिर संवारना लगा है|
सब दिशाओ  मे मच रहा था बवंडर,
तेरे हुक से सब कुछ ठहरने   लगा है|
मैं  घिर गया था घोर तमस मे ,
तेरी वाणी सा पथ झिलमिलाने  लगा है |
चल  दिया था मैं भी बनने  सिकंदर ,
भीतर  धयान का दिया जलने  लगा  है|
मेरा दिल बन गया उदासी का समंदर,
तुने गुदगुदाया तो  रोम-रोम महकने  लगा है |
दुखो ने बनाया मौत का तलबगार इस कदर,
बने जो नीलकंठ तुम ,दिल फिर जीने को मचलने लगा है |


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