मोको कहां ढूढे रे बन्दे

मोको कहां ढूढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में

ना तीर्थ मे ना मूर्त में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में

मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में

ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किर्या कर्म में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में

खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालाश में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूँ विश्वास में

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो

सागरा, प्राण तळमळला

ने मजसी ने परत मातृभूमीला,
सागरा, प्राण तळमळला

भूमातेच्या चरणतला तुज धूता,
मी नित्य पाहीला होता
मज वदलासी अन्य देशी चल जाऊ,
सृष्टिची विविधता पाहू
तइं जननीहृद् विरहशंकीतहि झाले,
परि तुवां वचन तिज दिधले
मार्गज्ञ स्वये मीच पृष्ठि वाहीन,
त्वरि तया परत आणीन
विश्र्वसलो या तव वचनी मी,
जगद्नुभवयोगे बनुनी मी
तव अधिक शक्त उद्धरणी मी,
येईन त्वरे, कथुन सोडीले तिजला
सागरा, प्राण तळमळला

शुक पंजरी वा हिरण शिरावा पाशी,
ही फसगत झाली तैसी
भूविरह कसा सतत साहू या पुढती,
दश दिशा तमोमय होती
गुणसुमने मी वेचियली या भावे,
की तिने सुगंधा घ्यावे
जरि उद्धरणी, व्यय न तिच्या हो साचा,
हा व्यर्थ भार विद्येचा
ती आम्रवृक्षवत्सलता रे,
नवकुसुमयुता त्या सुलता रे
तो बाल गुलाब ही आता रे,
फुलबाग मला, हाय, पारखा झाला
सागरा, प्राण तळमळला

नभि नक्षत्रे बहुत,
एक परी प्यारा मज भरत भूमिचा तारा
प्रसाद इथे भव्य,
परी मज भारी आईची झोपडी प्यारी
तिजवीण नको राज्य,
मज प्रियसाचा वनवास तिच्या जरि वनीचा
भुलविणे व्यर्थ हे आता रे,
बहुजिवलग गमते चित्ता रे
तुज सरित्पते जी सरिता रे,
तद्विरहाची शपथ घालितो तुजला
सागरा, प्राण तळमळला

या फेनमिषें हससि निर्दया कैसा,
का वचन भंगिसी ऐसा
त्वत्स्वामित्वा सांप्रत जी मिरवीते,
भिऊनि का आंग्ल भूमी ते
मन्मातेला अबल म्हणुनि फसवीसी,
मज विवासना ते देती
तरि आंग्लभूमि भयभीता रे,
अबला न माझी ही माता रे
कथिल हे अगस्तिस आता रे,
जो आचमनी एक क्षणी तुज प्याला
सागरा, प्राण तळमळला

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा

परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा

ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा

यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा ।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।

करता नहीं क्यों दुसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है ।

रहबर राहे मौहब्बत रह न जाना राह में
लज्जत-ऐ-सेहरा नवर्दी दूरिये-मंजिल में है ।

यों खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है ।

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।

खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मींद,
आशिकों का जमघट आज कूंचे-ऐ-कातिल में है ।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।
____________________________________

रहबर - Guide
लज्जत - tasteful
नवर्दी - Battle
मौकतल - Place Where Executions Take Place, Place of Killing
मिल्लत - Nation, faith

मकान

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने ।
इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने ।

हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने ।
कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने ।

आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने ।
बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये ।

अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान
बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये ।
दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक
रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये ।

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

मुझको भी तरकीब सिखा यार जुलाहे

अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोइ तागा टुट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिराह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई

मैनें तो ईक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहे
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे

हैफ हम जिसपे की तैयार थे मर जाने को

हैफ हम जिसपे की तैयार थे मर जाने को
जीते जी हमने छुड़ाया उसी कशाने को
क्या ना था और बहाना कोई तडपाने को
आसमां क्या यही बाकी था सितम ढाने को
लाके गुरबत में जो रखा हमें तरसाने को

फिर ना गुलशन में हमें लायेगा शैयाद कभी
याद आयेगा किसे ये दिल-ऐ-नाशाद कभी
क्यों सुनेगा तु हमारी कोई फरियाद कभी
हम भी इस बाग में थे कैद से आजाद कभी
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को
.....
....

देश सेवा का ही बहता है लहु नस-नस में
हम तो खा बैंटे हैं चित्तोड़ के गढ़ की कसमें
सरफरोशी की अदा होती हैं यों ही रसमें
भाले-ऐ-खंजर से गले मिलाते हैं सब आपस में
बहानों, तैयार चिता में हो जल जाने को

....
...

कोई माता की ऊंमीदों पे ना ड़ाले पानी
जिन्दगी भर को हमें भेज के काला पानी
मुँह में जलाद हुए जाते हैं छले पानी
अब के खंजर का पिला करके दुआ ले पानी
भरने क्यों जाये कहीं ऊमर के पैमाने को

मयकदा किसका है ये जाम-ए-सुबु किसका है
वार किसका है जवानों ये गुलु किसका है
जो बहे कौम के खातिर वो लहु किसका है
आसमां साफ बता दे तु अदु किसका है
क्यों नये रंग बदलता है तु तड़पाने को

दर्दमंदों से मुसीबत की हलावत पुछो
मरने वालों से जरा लुत्फ-ए-शहादत पुछो
चश्म-ऐ-खुश्ताख से कुछ दीद की हसरत पुछो
कुश्त-ए-नाज से ठोकर की कयामत पुछो
सोज कहते हैं किसे पुछ लो परवाने को

नौजवानों यही मौका है उठो खुल खेलो
और सर पर जो बला आये खुशी से झेलो
कौंम के नाम पे सदके पे जवानी दे दो
फिर मिलेगी ना ये माता की दुआएं ले लो
देखे कौन आता है ईर्शाथ बजा लाने को

-
हैफ - Alas!
कशाने - House
शैयाद - Hunter
नाशाद - Cheerless, Joyless
जाम-ए-सुबु - जाम से भरी सुराही
गुलु - neck
अदु - Enemy
हलावत - Relish, Deliciousness
चश्म-ऐ-खुश्ताख - audacious eyes
कुश्त-ए-नाज - one who is killed by flattery
सोज - Burning, Heat, Passion
ईर्शाथ - Order, Command


हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

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चश्म-ऐ-तर - wet eyes
खुल्द - Paradise
कूचे - street
कामत - stature
दराजी - length
तुर्रा - ornamental tassel worn in the turban
पेच-ओ-खम - curls in the hair
मनसूब - association
बादा-आशामी - having to do with drinks
तव्वको - expectation
खस्तगी - injury
खस्ता - broken/sick/injured
तेग - sword
सितम - cruelity
क़ाबे - House Of Allah In Mecca
वाइज़ - preacher

कोशिश करने वालों की

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

हम करें राष्ट्र आराधन

हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

तन से, मन से, धन से
तन मन धन जीवन से
हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

अंतर से, मुख से, कृति से
निश्चल हो निर्मल मति से
श्रद्धा से मस्तक नत से
हम करें राष्ट्र अभिवादन
हम करें राष्ट्र अभिवादन

हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

अपने हँसते शैशव से
अपने खिलते यौवन से
प्रौढ़ता पूर्ण जीवन से
हम करें राष्ट्र का अर्चन
हम करें राष्ट्र का अर्चन

हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

अपने अतीत को पढ़कर
अपना इतिहास उलट कर
अपना भवितव्य समझ कर
हम करें राष्ट्र का चिंतन
हम करें राष्ट्र का चिंतन

हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

है याद हमें युग युग की
जलती अनेक घटनायें,
जो माँ की सेवा पथ पर
आई बन कर विपदायें,
हमने अभिषेक किया था
जननी का अरि षोणित से,
हमने श्रिंगार किया था
माता का अरि-मुंडों से,
हमने ही उसे दिया था
सांस्कृतिक उच्च सिंहासन,
माँ जिस पर बैठी सुख से
करती थी जग का शासन,
अब काल चक्र की गति से
वह टूट गया सिंहासन,
अपना तन मन धन देकर
हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

तन से, मन से, धन से
तन मन धन जीवन से
हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन

स्रिष्टी से पहले

स्रिष्टी से पहले सत् नहीं था, असत् भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ, किसने ढ़का था
उस पल तो अगम अटल जल भी कहाँ था

स्रिष्टी का कौन है कर्त्ता
कर्त्ता हैं वा अकर्त्ता
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अदर्ष्ट बना रहता
वही सचमुच में जानता, या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
नहीं पता, नहीं है पता

Part - II

वह था हिरण्यगर्भ, स्रिष्टी से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत-जात का स्वामी महान्
जो है अस्त्तिवमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

जिस के बल पर तेजोमेय है अंबर
प्रथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर, पैदा कर
व्यापा था जल, इधर उधर निचे उपर
जगा चुके वो कायेक-मेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

ॐ, स्रिष्टी निर्माता, स्वर्ग रचेता, पुर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बाहों जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम अविदेहकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम अविदेहकर

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

फिर नजर में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई ।

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

आ सजन ,आज बातें कर ले ....

तेरे दिल के बागों में
हरी चाह की पट्टी जैसी
जो बात जब भी उगी ,
तुने वही बात तोड़ ली

हर इक नाजुक बात छिपा ली ,
हर इक पत्ती सूखने डाल दी
मिटटी के इस चूल्हे में से
हम कोई चिंगारी ढूंढ़ लेंगे
एक दो फूंक मार लेंगे
बुझती लकड़ी फ़िर से बाल लेंगे

मिटटी के इस चूल्हे में
इश्क की एक एक आँच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हंडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा

सजन .आज खोल पोटली ....

हरी चाय की पत्ती की तरह
वही तोड़ गंवाई बातें
वहीँ संभाल सुखायी बातें
इस पानी में डाल कर देख ,
इसका रंग बदल कर देख

गर्म घूंट इक तुम भी पीना ,
गर्म घूंट इक मैं भी पी लूँ
उम्र का ग्रीष्म हमने बीता दिया ,
उम्र का शिशिर नही बीतता

सजन ,आज बातें कर लें .....
.. ,

एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

याद

आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….

आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….

साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….

तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….

हादसा

बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

आत्ममिलन

मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

शहर

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….

जांनिसार अख्तर की ग़ज़ल

ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

माफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझको
वो एक लम्हा कि मैं तुझसे तंग आया था

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चन्द ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

गुलज़ार की नज़्म

एक परवाज़ दिखाई दी है
तेरी आवाज़ सुनाई दी है

जिस की आंखों में कटी थी सदियां
उस ने सदियों की जुदाई दी है

सिर्फ़ एक सफ़ह पलटकर उसने
बीती बातों की सफ़ाई दी है

फिर वहीं लौट के जाना होगा
यार ने कैसी रिहाई दी है

आग ने क्या-क्या जलाया है शै पर
कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है

नीरज गोपाल दास

जन्म: ८ फरवरी १९२६ को पुरावली, इटावा उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा: एम. ए. तक सभी परीक्षाओं में ससम्मान उत्तीर्ण। कालेज में अध्यापन, मंच पर कविता वाचन में लोकप्रियता और फ़िल्मों में गीत लेखन।

नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है किन्तु फिर भी उनका काव्यात्मक व्यक्तित्व आज सबसे अधिक विवादास्पद है। जन समाज की दृष्टि में वह मानव प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्यामन' के शब्दों में उनमें हिन्दी का ''अश्वघोष'' बनने की क्षमता है। दिनकर जी के कथनानुसार वह हिन्दी की वीणा है' अन्य भाषा भाषियों के विचार से वह 'सन्त कवि है' और कुछ आलोचकों के मत से वह 'निराश मृत्युवादी है'।

वर्तमान समय में वह सर्वाधिक लोकप्रिय और लाडले कवि है इन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सहज सरल भाषा द्वारा हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया है और बच्चन जी के बाद कवियों की नई पीढ़ी को सर्वाधिक प्रभावित किया। आज अनेक गीतकारों के कंठ में उन्हीं की अनुगूँज है।

प्रमुख रचनाएँ
कविता संग्रह हैं 'दर्द दिया', 'प्राण गीत', 'आसावरी', 'बादर बरस गयो', 'दो गीत', 'नदी किनारे', 'नीरज की गीतिकाएँ', संघर्ष, विभावरी, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तक, गीत भी अगीत भी इत्यादि।

पत्र संकलन : लिख लिख भेजूँ पाती
आलोचना : पंत कला काव्य और दर्शन।

प्रिय गाँव मेरे तू चल

प्रिय गाँव मेरे तू चल , तेरे शहर में क्या रखा है
यहाँ बोतलों में शहद , वहां बोलियों में भरा है ……………!!!

उस दिन जब आई थी बरसात तेज हवाओ वाली
आँगन में ही छूट गए थे लोटा ,चिमटा, थाली !
दौड़ के तूने बड़े चाव से रखा था जो छत पर
सारी रात घुमड़ कर बरसा फिर भी तेरा बर्तन खाली
मेरे गाँव का सीडी दार कुआ ,देख मुहँ तक भरा है !!!
प्रिय गाँव मेरे तू चल , तेरे शहर में क्या रखा है
यहाँ बोतलों में शहद , वहां बोलियों में भरा है ………………………!!!

ना भंवरे , न पवन झकोरे , ना तितली ही आती ,
गमलों में तू फूल खिला, ये कैसा सावन लाती !
तेरे नरम मुलायम मिटटी हो ना सकी उपजाऊ
गाँव के मंदिर पीपल फुट भेद दिवार की छाती
जहाँ बंधती है मेरी गाय , वो ठूठ तक भी हरा है !!!!
प्रिय गाँव मेरे तू चल , तेरे शहर में क्या रखा है
यहाँ बोतलों में शहद , वहां बोलियों में भरा है……………………!!!

पीपल पत्थर पूजे ,मांगे अच्छे वर की मनोती ,
भोली लड़किया , देवलोक को दे देती है चुनोती ,
तू है मानती प्रेम वेदना Velentine day में ,
वो है मानती फाग रंग को अपनी प्रेम बपोती
उसके विश्वास का सोना , देख कितना खरा है !!!
प्रिय गाँव मेरे तू चल , तेरे शहर में क्या रखा है
यहाँ बोतलों में शहद , वहां बोलियों में भरा है ………………….!!!

सीधे पेड़ हो...

क्या सोचोगे और क्या पाओगे

तुम सच्चे हो, हर वक्त छले जाओगे

कोई नही समझेगा तुमको इस दुनिया में,

मजाक बनकर रह जाओगे

बचो अगर बच सकते हो इस दुनिया से,

सीधे पेड़ हो,

पहले काटे जाओगे

- नेट गुरु

आख़िर क्यो???

हम प्यार करने वालों को कब ये दुनिया समझेगी ?
क्या मेरे दिल में, क्या तेरे दिल में कौन जान पाया?
काश! दुनिया में सिर्फ़ प्यार ही होता...
ये चालाकियां, छलावा, झूठ न होता?
काश! दुनिया प्यार के मर्म को समझ पाती?
दुनिया में इतने चालाक लोग क्यो हैं?
क्यो लोग दिल से काम न लेकर दिमाग से काम लेते हैं?
क्यो बेक़सूर और सच्चा इन्सान इस दुनिया में ज्यादा दुखी रहता है?
क्यो चालाक इन्सान बाज़ी मार लेते हैं?
क्यो सच्चे और मासूम लोग हारते मालूम होते हैं?
आख़िर क्यो ईश्वर सच्चे लोगों का साथ नहीं दे रहा?
आख़िर क्यो लोग प्रेम से नही रह पाते?
क्यो लोग सच्चे इन्सान के आखों के पानी की नमी को महसूस नही कर पाते?
आख़िर क्यो???
- नेट गुरु

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