भीतर अब भी रहता है कोई...

गाँव की गलियों में,
तुम आज भी घूम सकते हो|
सभ्यता,संस्कृति,जिन्दा है अभी|

तुम किसी भी दीवार पर,
पीठ टीका,सुस्ता सकते हो|
अपनेपन की थाप ही महसूस होगी|

बांहे पसारे,स्वागत करेगा,
खंडहर ही हो,वह चाहे कोई|

किसी घर की देहरी पर,
पाँव रखकर सहमना  नहीं|
भीतर अब भी,रहता है कोई|

रसोई की खिडकी से,
गंध महसूस कर  सकते हो,
अब भी माँ  और काकी,
सांझे चूल्हे पर थेपटी हैं  रोटी|

हर आँगन की टूटी फूटी सीडियां,
अब भी तुमको अंदर ले जाती है,
क्यूंकि आँगन की वे अधूरी पायदाने,
सभ्यता और अपनत्व से पूरी है  अभी|