कहने को बहुत कुछ है, अपनी कहानी में,
लफ्ज़ों में बयां कर दे, ऐसी नज़्म नहीं होती !
आँखो को इंतज़ार की आदत सी हो गई है,
दहलीज़ पर कोई दस्तक, बज़्म नहीं होती !
जमाना कहता है, हर रात की सुबह होती है,
ये बेकस रात, मगर अब, खत्म नहीं होती !
महबूब की मेंहदी फीकी पड़ सकती है,
बचपन की शरारत, कम नहीं होती !
पत्थर हो चुकी संवेदना हमारी,
ये आँखें अब नम नहीं होती ! !
आज की इस भागमभाग में
आज की इस भागमभाग में
दुनिया के समंदर में
वेदनाओं के भँवर में
संवेदनाओं के लिये वक्त कहाँ?
आज संवेदना उठती है मन में
बसती है दिल में
और दिमाग में सिमट जाती है
जिस तेजी से हम बढ़ रहे हैं
खुद ही खुद को छल रहे हैं
एक दिन ऐसा भी आयेगा जब
हमसे पूछा जायेगा
कि बताओ संवेदना कौन है?
किसी की बहन है, बीवी है
नानी है सहेली है
ये कैसी पहेली है?
आखिर कौन है संवेदना?
रिश्ता क्या है इससे मेरा?
तब हम न बता पायेंगे
कि संवेदना दिल की आवाज़ है
इंसान की इंसानियत है
जानवर और हमारे बीच का फर्क है
माँ की ममता और बाप के दिल का प्यार है
छूने से छू लेने का अहसास है संवेदना है
और कलम हाथ में ले कर
यह साधिकार कथन है कि
संवेदना पहचान है साहित्य की भी
इस लिये संवेदित हूँ
कि खो न जाये कहीं।
दुनिया के समंदर में
वेदनाओं के भँवर में
संवेदनाओं के लिये वक्त कहाँ?
आज संवेदना उठती है मन में
बसती है दिल में
और दिमाग में सिमट जाती है
जिस तेजी से हम बढ़ रहे हैं
खुद ही खुद को छल रहे हैं
एक दिन ऐसा भी आयेगा जब
हमसे पूछा जायेगा
कि बताओ संवेदना कौन है?
किसी की बहन है, बीवी है
नानी है सहेली है
ये कैसी पहेली है?
आखिर कौन है संवेदना?
रिश्ता क्या है इससे मेरा?
तब हम न बता पायेंगे
कि संवेदना दिल की आवाज़ है
इंसान की इंसानियत है
जानवर और हमारे बीच का फर्क है
माँ की ममता और बाप के दिल का प्यार है
छूने से छू लेने का अहसास है संवेदना है
और कलम हाथ में ले कर
यह साधिकार कथन है कि
संवेदना पहचान है साहित्य की भी
इस लिये संवेदित हूँ
कि खो न जाये कहीं।
आह किसकी थी जिसको कि हम
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
हिचकियों से बँधी दास्ताँ
थी न जाने कहाँ से शुरू
और हम थे समेटे हुए
दोनों हाथों में बस आबरू
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
वो सफर जिसने तन्हा किया
उस अंधेरी घनी रात में
साथ में फिर न हम जी सके
हाथ लेकर के भी हाथ में
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
जब दरख्तों से छनती हुई
धूप में दर्द को बांच कर
तुम चुके, इक परिन्दा उड़ा
जाने किस बात को सोच कर
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
कर गये भीड़ में अनसुनी
हिचकियों से बँधी दास्ताँ
थी न जाने कहाँ से शुरू
और हम थे समेटे हुए
दोनों हाथों में बस आबरू
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
वो सफर जिसने तन्हा किया
उस अंधेरी घनी रात में
साथ में फिर न हम जी सके
हाथ लेकर के भी हाथ में
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
जब दरख्तों से छनती हुई
धूप में दर्द को बांच कर
तुम चुके, इक परिन्दा उड़ा
जाने किस बात को सोच कर
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
चोट लगे जब और किसी को दर्द हमें भी होता है
चोट लगे जब और किसी को दर्द हमें भी होता है
होते देख अत्याचार दिल बेबस हो रोता है
किसी के रोने पर जब आँखें अपनी नम हो जाती है
किसी के गम से जब भावना हमारी सम हो जाती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
किसी पर होता ज़ुल्म देख, जब मुट्ठी अपनी बँध जाती है
बहता देख खून किसी का, आँखें मुंद सी जाती हैं
इंसाफ ना मिल पाने पर जब, दांत हमारे पिसते हैं
दूजे पर लगे घाव और अंग हमारे रिसते हैं
कुछ न कर पाने की लाचारी से जब आत्मा पसीजती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
जब रिक्शा चालक को बोझ खींचना हमें अखरता है
जब कंधे से खिंचता बोझ देख अंदर कुछ बिखरता है
जब भूखा देख किसी को आँतें अपनी कुमल्हाती हैं
किसी के सुखे होंठ देख कलियाँ मन की मुरझाती हैं
जब कुछ कर गुज़र जाने की भावना पनपती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है
जब बिटिया घर की नहीं मोहल्ले की हो जाती है
जब अम्मा सभी की दादी-नानी कहलाती है
जब बिटिया की विदाई का आलम सबको रूलाता है
जब अम्मा के जाने पर कोई कुछ नहीं पकाता है
जब किसी को कुछ हो जाने पर सबकी आँखे जगती हैं
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
जब दो दर्दों का पावन संगम प्रयाग कहलाता है
जब प्यार, प्रेम के तोड़ निवाले, सब को भर पेट खिलाता है
जब होली, ईद, दीवाली धर्म नहीं, इंसान मनाया करते हैं
जब पड़ौसी गुझिया पपड़ी और हम सेंवई खाने जाया करते हैं
भावनाओं की नदी प्रीत लहरों से उफनती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
होते देख अत्याचार दिल बेबस हो रोता है
किसी के रोने पर जब आँखें अपनी नम हो जाती है
किसी के गम से जब भावना हमारी सम हो जाती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
किसी पर होता ज़ुल्म देख, जब मुट्ठी अपनी बँध जाती है
बहता देख खून किसी का, आँखें मुंद सी जाती हैं
इंसाफ ना मिल पाने पर जब, दांत हमारे पिसते हैं
दूजे पर लगे घाव और अंग हमारे रिसते हैं
कुछ न कर पाने की लाचारी से जब आत्मा पसीजती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
जब रिक्शा चालक को बोझ खींचना हमें अखरता है
जब कंधे से खिंचता बोझ देख अंदर कुछ बिखरता है
जब भूखा देख किसी को आँतें अपनी कुमल्हाती हैं
किसी के सुखे होंठ देख कलियाँ मन की मुरझाती हैं
जब कुछ कर गुज़र जाने की भावना पनपती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है
जब बिटिया घर की नहीं मोहल्ले की हो जाती है
जब अम्मा सभी की दादी-नानी कहलाती है
जब बिटिया की विदाई का आलम सबको रूलाता है
जब अम्मा के जाने पर कोई कुछ नहीं पकाता है
जब किसी को कुछ हो जाने पर सबकी आँखे जगती हैं
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
जब दो दर्दों का पावन संगम प्रयाग कहलाता है
जब प्यार, प्रेम के तोड़ निवाले, सब को भर पेट खिलाता है
जब होली, ईद, दीवाली धर्म नहीं, इंसान मनाया करते हैं
जब पड़ौसी गुझिया पपड़ी और हम सेंवई खाने जाया करते हैं
भावनाओं की नदी प्रीत लहरों से उफनती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना
आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना,
इसलिये प्रकट कर सके तुम संवेदना
वो पीड़ा मेरी अथक, थी जो अकथ,
फिर भी तुम पर हो गई सहज प्रकट
तुम्हारे मन मे उतरे, वो दुख थे मेरे,
विरह मेरा था वो जो तुमको घेरे
जानता हूँ मैं कि कठिन था संवेदक,
यूँ मेरे विषाद की भित्ति को भेदना
ये दया जो मन मे तुम्हारे सर उठाये,
शब्द जो बारंबार तुम्हारे अधरों पर आये
अश्रूपुष्प आज जो तुम्हारे कपोलों पर है
गंगोत्री उनकी मेरे नयनों पर है
वो झंझावत जो झकझोरे है तुमको,
असंभव है उसमें बस खड़े रहना
बरसे, भीगा जाये, मेघ दुख के काले,
पीड़ा के शूल, हृदय को भेद डाले
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
इसलिये प्रकट कर सके तुम संवेदना
वो पीड़ा मेरी अथक, थी जो अकथ,
फिर भी तुम पर हो गई सहज प्रकट
तुम्हारे मन मे उतरे, वो दुख थे मेरे,
विरह मेरा था वो जो तुमको घेरे
जानता हूँ मैं कि कठिन था संवेदक,
यूँ मेरे विषाद की भित्ति को भेदना
ये दया जो मन मे तुम्हारे सर उठाये,
शब्द जो बारंबार तुम्हारे अधरों पर आये
अश्रूपुष्प आज जो तुम्हारे कपोलों पर है
गंगोत्री उनकी मेरे नयनों पर है
वो झंझावत जो झकझोरे है तुमको,
असंभव है उसमें बस खड़े रहना
बरसे, भीगा जाये, मेघ दुख के काले,
पीड़ा के शूल, हृदय को भेद डाले
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
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