आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना,
इसलिये प्रकट कर सके तुम संवेदना
वो पीड़ा मेरी अथक, थी जो अकथ,
फिर भी तुम पर हो गई सहज प्रकट
तुम्हारे मन मे उतरे, वो दुख थे मेरे,
विरह मेरा था वो जो तुमको घेरे
जानता हूँ मैं कि कठिन था संवेदक,
यूँ मेरे विषाद की भित्ति को भेदना
ये दया जो मन मे तुम्हारे सर उठाये,
शब्द जो बारंबार तुम्हारे अधरों पर आये
अश्रूपुष्प आज जो तुम्हारे कपोलों पर है
गंगोत्री उनकी मेरे नयनों पर है
वो झंझावत जो झकझोरे है तुमको,
असंभव है उसमें बस खड़े रहना
बरसे, भीगा जाये, मेघ दुख के काले,
पीड़ा के शूल, हृदय को भेद डाले
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
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