आह किसकी थी जिसको कि हम

आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
हिचकियों से बँधी दास्‍ताँ
थी न जाने कहाँ से शुरू
और हम थे समेटे हुए
दोनों हाथों में बस आबरू

आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
वो सफर जिसने तन्‍हा किया
उस अंधेरी घनी रात में
साथ में फिर न हम जी सके
हाथ लेकर के भी हाथ में

आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
जब दरख्‍तों से छनती हुई
धूप में दर्द को बांच कर
तुम चुके, इक परिन्‍दा उड़ा
जाने किस बात को सोच कर

आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी

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