युँही बेसबब न फ़िरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो गज़ल की ऐसी किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
ये ॰खिजां की जर्द-सी शाल में जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो
कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
कभी हुस्न पर्द:नशीं भी हो जरा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूँ मेरे साथ तुम भी चला करो
नहीं बेहिज़ाब॰ वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर ना हो
उसे इतनी गर्मि-ए-शौक से बड़ी देर तक न तका करो
॰ खिजाँ= पतझड़
॰ बेहिज़ाब= बेपर्दा
॰ गर्मि-ए-शौक = उत्सुकता , लगन
- बशीर बद्र साहब ( १५-२-१९३५)
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