तेरी गुफ़्तगू में है जो चाशनी जो तेरे लबों में हलावतें
न सुरूर वो फ़स्ल-ए-बहार में न गुलों में लताफ़तें
कहाँ रह गईं तेरी निगहतें वो सबा किधर को निकल गई
तेरी आहटों को तरस गाईं मेरे जिस्म-ओ-जाँ की सम'अतें
तेरे अंग अंग अमिं लोच है मेरे दिल के सोज़-ओ-ग़दाज़ का
मेरे ख़ून-ए-दिल से रक़म हुईं तेरे रन्ग-ओ-बू की हिकायतें
मेरी चश्म-ए-ग़म दिल-ए-मुज़तरिब ग़म-ए-आरज़ू ग़म-ए-जुस्तजू
लिये फिर रहा हूँ नगर नगर किसी मेहेरबाँ की अमानतें
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