पिता...



पिता का केवल चेहरा था हंसमुख
लेकिन पिता को खुद हँसते हुए
देखा नहीं किसी ने कभी

नींव की ईंट की तरह
भार साधे पूरे घर का अपने ऊपर
अडिंग खड़े रहे पिता

आये अपार भूकंप
चक्रवात अनगिन
गगन से गाज की तरह गिरती रही
विपदाओं में झुका नहीं पिता का ललाट

कभी बहन की फीस कम पड़ी
तो पिता ने शेव करवाना बंद रखा पूरे दो माह
कई बार तो मेरी मटरगश्तियों के लिए भी
पर पिता ने रख दिए मेरी जेब में कुछ रूपए
जो बाद में पता लगा
की लिए थे उन्होंने किसी से उधार

पिता कम बोलते थे या कहें
की लगभग नहीं बोलते थे
आज सोचता हूँ
उनके भीतर
इतना मचा रहता था घमासान
जिसे झुझते हुए
खर्च हो रही थी
उनके दिल की हर धड़कन

माँ को देखा हे हमने कई बार
पिता की छाती पर सिर धरे उसे अनकते हुए

माँ की उदास साँसों में
पिता की अतृप्त इच्छाओं का ज्वार
सिर पटकता कराहता था बेआवाज़


यह एक सहमत रहस्य था दोनों का

जिसे जाना मैंने पिता बनने के बाद



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