क्या गजब की फूल भी खिलते हैं खारों के बीच,
जी रहें हैं हम भी दोस्तों यारों के बीच|
एक दिन भूले से मैंने 'दिन'को दिन क्या कह दिया,
अपनों ने ही रख दिया गुनाहगारों के बीच|
क्या बताएं अब तुम्हें अपने नये घर का पता,
रह रहें हैं हम दहशत भरी दीवारों के बीच|
दोस्तों के दरमियाँ याद आये वो 'दुश्मन',
जहाँ महफूज़ थे हम उनकी तलवारों के बीच|
पहले टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी यह जमीन,
और अब आसमान,
लगता है'खुदा भी बंट गया है,
इस मजहबी हकदारों के बीच|
क्या गजब की फूल भी.....................................
No comments:
Post a Comment