पड़े-पड़े...


नदी पड़े-पड़े काई हो जाती है
मिटटी पड़े-पड़े धुल

लोहा पड़े-पड़े जंग हो जाता है
लकड़ी पड़े-पड़े दीमक

हवा पड़े-पड़े उबासी हो जाती है
आग पड़े-पड़े राख

सपने पड़े-पड़े शिकस्त हो जाते हैं
इच्छाएं पड़े-पड़े ऊब

पड़े-पड़े हर चीज़
केवल कबाड़ होती है

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