सोच एक शायर की...


शाम का वक्त है शाखों को हिलाता क्यों है
तू थके-मांदे परिंदों को उडाता क्यों है

वक्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घर्डियों की तू पीछे घुमाता क्यों है

स्वाद कैसा है पसीने का,यह मजदूर से पूछ
छाँव में बैठ के अंदाज लगाता क्यों है

मुझको सीने से लगाने में है तोहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढाता क्यों है

प्यार के रूप हैं सब,त्याग-तपस्या-पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रशन उठाता क्यों है

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुःख से लगाता क्यों हैं

देखना चैन से सोना कभी होगा नसीब
ख़्वाब की तू कोई तस्वीर बनाता क्यों है



1 comment:

Pappu Parihar Bundelkhandi said...

तेरी सफ्श रौशनी में नहाया हुआ मंजर है यह |
आखों को सुकून दे कर दिल में उतर गया है यह |