जो दुखों कि बारिश में,
घर के दरवाजे पर
नज़रबट्टू बन टंगते हैं,
समेत लेते हैं सबका
अँधियारा भीतर,
खुदआंगन में दीपक बन जलते हैं ,
ऐसे होते हैं पिता ||
बेशक पिता लोरी नही सुनाते,
माँ कि तरह आंसू नही बहाते
पर दिनभर कि थकान
के बावजूद रात का पहरा बन जाते हैं ||
जब निकलते हैं सुबह तिनकों कि खोज में
किसी के खिलोने ,किसी कि किताबें,
किसी कि मिठाई,किसी कि दवाई,
परवाज पर होते है घर भर के सपने |
पिता कब होते हैं खुद के अपने||
जब सांझ ढले लौटते हैं घर,
माँ कि चुदियाँ खनकती हैं,
नन्ही गुडिया चहकती है,
सबके सपने साकार होते हैं,
पिता उस वक्त अवतार होते हैं |
जवान बेटियां बदनाम होने से डरती है
हर गलती पर आँखों कि मार पडती है ,
दरअसल भय,हया,संस्कार का बोलबाला है पिता.
मोहले भर कि जुबान का ताला है पिता ||
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