वो अहसास मात्रत्व का...

गर्व होता है खुद पर,
दुनिया के लिए किस्से सही,
हमें होता है फख्र खुद पर,यह समझ सकती है 'सिर्फ एक माँ'

गुजरना वो नों महीनों का,
न जाने कितनी उलझनों को सहना,
वो पीड़ा , वो आनंद ,
यह समझ सकती है'सिर्फ एक माँ'

वो लम्हा थम जाता है जनम का,
हजारों खुशियाँ आ जाती हैं कदमों में,
कोई दर्द कोई आंसू याद नहीं रहता,
जब मिलता है'स्पर्श'शिशु का,
यह समझ सकती है 'सिर्फ एक माँ'

माँ जैसा रब नहीं...

ईश्वर हर जगह हो नहीं सकता था,इसलिए माँ भिजवाई,
न मैं गुनी  हूँ न मैं ज्ञानी,और न इतना जग जाना |
पर इस नन्हे फूल  ने खिलकर गोद में मेरी,भेद मुझे ये समझाया,
की लाख जतन चाहे कर ले वो इश्वर हो ही नही सकता माँ जैसा |

एक ठिठुरती सर्द रात में.क्या देखा है किसी ने,
उस ईश्वर को गीले बिस्तर पर सोते |
ये केवल माँ हो सकती है...

वो तो पूरी कायनात का जादू लेकर बैठा है,
कोई करिश्मा कर भी  दे,तो बात बड़ी इसमें क्या है |
पर मैंने महसूस किया है,माँ के छु लेने भर ही से,
कैसा जादू होता है,गहरे से गहरा  दुःख हो चाहे छू मंत्र हो जाता है |

हम बन्दों को पता है क्या की ईश्वर दुःख भी देता है?
कर्मों का करके हिसाब वो फिर पीछे ही कुछ देता है |
कहाँ वो इतने दरियादिल की,झूठ-मूठ के आंसू से पिघलकर,
जान-बूझकर सारा छल,फिर भी ठगाए बच्चों से |
यह केवल माँ हो सकती है बस  केवल माँ हो सकती है ...

कहकर माँ को रब जैसा ,क्यूँ उसके भोलेपन पर प्रश्न करूं?
क्या देखा है कहीं किसी ने उसमे माँ-सा भोलापन?
ये तो बस माँ हो सकती है,बस केवल माँ हो सकती है...
माँ की व्याख्या केवल माँ है,माँ का वर्णन केवल माँ |
केवल माँ ही माँ जैसी है|रब नहीं है उस जैसा | 

दोस्ती को कभी अलविदा मत कहना...

झूठा अपनापन तो हर कोई जताता है
वो अपना ही क्या जो हर पल सताता है
यकीन न करना हर किसी पर क्यूंकि 
 करीब है कितना कोई ये वक्त बताता है|

खुशबू की तरह मेरे साथ रहना 
लहू बनकर मेरी नस में बहना 
दोस्ती है रिश्तों का अनमोल रत्न 
दोस्ती को कभी अलविदा मत कहना|

खुशबू की इक किताब कह बेठे 
उनको ताज़ा गुलाब कह बैठे 
उनको चुकर है झरना दीवाना
पानी को हम शराब कह बैठे |

मौन विदाई...

बसंत को विदा दी,
तो मौसम का दर्द,
पतझड़ के पीले पत्तों पर,
कुछ यूँ छलक आया,
मानो उसकी विदाई ,
वह सह नही पाया|
मुरझाये चेहरे से,
सन्नाटे बुनता है,
हवा को गुनता है,
पीले से सरसर पत्ते,
जब दूर उड़ जाते हैं,
ठूंठ सा होकर,
इंतज़ार करता है,
नन्ही कोपल से,
पत्तों के स्पर्श की,
बहांर तो सच एक,
हवा का झोंका है,
क्रमबद्ध आती-जाती है|
मन दुखता है,
फिर हरा  हो,
लुभाता है हर्षाता है,
मन मोह ले जाता है|

भीतर अब भी रहता है कोई...

गाँव की गलियों में,
तुम आज भी घूम सकते हो|
सभ्यता,संस्कृति,जिन्दा है अभी|

तुम किसी भी दीवार पर,
पीठ टीका,सुस्ता सकते हो|
अपनेपन की थाप ही महसूस होगी|

बांहे पसारे,स्वागत करेगा,
खंडहर ही हो,वह चाहे कोई|

किसी घर की देहरी पर,
पाँव रखकर सहमना  नहीं|
भीतर अब भी,रहता है कोई|

रसोई की खिडकी से,
गंध महसूस कर  सकते हो,
अब भी माँ  और काकी,
सांझे चूल्हे पर थेपटी हैं  रोटी|

हर आँगन की टूटी फूटी सीडियां,
अब भी तुमको अंदर ले जाती है,
क्यूंकि आँगन की वे अधूरी पायदाने,
सभ्यता और अपनत्व से पूरी है  अभी|