गाँव की गलियों में,
तुम आज भी घूम सकते हो|
सभ्यता,संस्कृति,जिन्दा है अभी|
तुम किसी भी दीवार पर,
पीठ टीका,सुस्ता सकते हो|
अपनेपन की थाप ही महसूस होगी|
बांहे पसारे,स्वागत करेगा,
खंडहर ही हो,वह चाहे कोई|
किसी घर की देहरी पर,
पाँव रखकर सहमना नहीं|
भीतर अब भी,रहता है कोई|
रसोई की खिडकी से,
गंध महसूस कर सकते हो,
अब भी माँ और काकी,
सांझे चूल्हे पर थेपटी हैं रोटी|
हर आँगन की टूटी फूटी सीडियां,
अब भी तुमको अंदर ले जाती है,
क्यूंकि आँगन की वे अधूरी पायदाने,
सभ्यता और अपनत्व से पूरी है अभी|
तुम आज भी घूम सकते हो|
सभ्यता,संस्कृति,जिन्दा है अभी|
तुम किसी भी दीवार पर,
पीठ टीका,सुस्ता सकते हो|
अपनेपन की थाप ही महसूस होगी|
बांहे पसारे,स्वागत करेगा,
खंडहर ही हो,वह चाहे कोई|
किसी घर की देहरी पर,
पाँव रखकर सहमना नहीं|
भीतर अब भी,रहता है कोई|
रसोई की खिडकी से,
गंध महसूस कर सकते हो,
अब भी माँ और काकी,
सांझे चूल्हे पर थेपटी हैं रोटी|
हर आँगन की टूटी फूटी सीडियां,
अब भी तुमको अंदर ले जाती है,
क्यूंकि आँगन की वे अधूरी पायदाने,
सभ्यता और अपनत्व से पूरी है अभी|
1 comment:
Wow!:)
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